क्योकि मैं " पुरुष " हूँ...

क्योकि मैं " पुरुष " हूँ... 


मैं भी सताया जाता हूँ, जला दिया जाता हूँ 

उस दहेज की आग में, जो कभी माँगा ही नहीं था 

स्वाह कर  दिया जाता है मेरे उस मान सामान का 

तिनका -तिनका कमाया था जिसे मैने

मगर आह नहीं भर सकता क्योकि 

मैं  "पुरुष " हूँ। ...    


मैं भी देता हूँ आहुति, विवाह की अग्नि में अपने रिश्तो की 

हमेशा धकेल दिया जाता हूँ , रिश्तो का वजन बांध कर 

जिम्मेदारियों की उस कुंए मैं, जिसे भरा नहीं जा सकता 

बहुत मजबूत होने का ठप्पा लगाए जीता जाता हूँ 

क्योकि मैं  " पुरष " हूँ। ... 


हाँ मेरा भी होता हैं बलात्कार, उठा दिए जाते हैं,

मुझ पर भी कई हाथ, बिना वजह जाने 

बिना बात की तह नापे लगा दिया जाता है 

सलाखों के पीछे, कई धाराओं मैं 

क्योकि  मैं " पुरुष " हूँ 


सुना जब मन भरता है, तब आँखों से बहता है 

मर्द होकर रोता हैं, मर्द को दर्द कब होता है 

टूट जाता है तब मन से, आँखों का वो रिश्ता 

तब हर कोई कहता है... तो सुनो। ... 

सही गलत को 

हर स्त्री स्वेत स्वर्ण नहीं होती, न ही हर पुरष स्याह कालिक 

मुझे सही -गलत कहने वाले, पहले मेरी हालत नहीं जांचते 

क्योकि मैं " पुरष " हूँ 


ध्यानवाद - हमारे मित्र रवि शर्मा जी


आपको यह काव्य कैसा लगा अपने कमेंट द्वारा जरूर बताये  और सब्सक्राइब करना ना भूले। 












टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Disclaimer/अस्वीकरण