मेरी कहानी मेरी ज़ुबानी पार्ट - 1

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मेरी कहानी मेरी  ज़ुबानी पार्ट - 1 


दोस्तों अपने जीवन की कहानी आज आप सब को कहने जा रहा हूँ, यह फैसला बहुत कुछ सोचने के  बाद मैने  लिया क्योकि  वो कहते हैं  न कि अपना दर्द बाँटने से से काम होता है, … बस इसलिए यह एक जरिया लगा अपने आप को कहने का।  मैं कोई professional लेखक नहीं हूं इसलिए जैसे - जैसे याद आता रहेगा  वैसे - वैसे मैं  इसे अपने शब्दों में बंया  करता जाऊंगा, हो सकता इस दौरान मेरे कारण किसी को परेशानी हो, पर यह मेरा अपना सच है, जिसे मैंने जिया है।  वैसे इस दुनिया में मेरा अपनी पत्नी और बच्चो  के सिवा कोई नहीं जिसे मैं अपना कह सकू। इसलिए कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। 


मेरा जन्म एक मिडिल क्लास फैमली मैं हुंआ आज मैं 43  साल का हूँ।  मेरे परिवार में माता-पिता के अलावा हम तीन भाई और एक बहन हुआ करती थी।  थी से मतलब अभी तक इस दुनिया में मेरे पिता को छोड़ कर सभी इस दुनिया में जीवित है।  … पर अब वो रिश्ते कुछ  और ही है। ....  

वो समय सन  1985 का था , मेरे पिताजी DCM क्लॉथ मील कंपनी में कंपनी सेक्रेटरी के पोस्ट पर काम किया करते थे। रोज की दिनचर्या में वह सुबह ठीक 8. 30 पर अपनी साइकल पर मुझे अपने साथ लेकर बस स्टैंड पर जाते और 840  नंबर की बस पकड़ कर वो राजेंद्रा प्लेस जाते। . मैं उन्हें बस स्टैंड छोड़ कर वापिस अपने घर आ जाता।   उस  वक़्त  हम आशा पार्क रहा करते थे, नया -नया मोहल्ला था अधिक बसा हुआ नहीं था उस वक़्त। कुछ घर बन रहे थे कुछ बन चुके थे।  टूटी -फूटी सड़क थी, नालिया बन रही थी।  बस स्टैंड पर छोड़ने  और पानी लाना यदा - कदा  मेरा बड़ा भाई भी जाया करता  था। पिताजी अपने ऑफिस जाने से पहले हमे खर्च करने के लिए पैसे  देते थे।  सुबह -सुबह पैसे मिलने की ख़ुशी में हम तीनो भाई अपने पिताजी के पास बरामदे में खड़े हो जाते थे, वो पूछते थे " हाँ भई कौन छोड़न जा रया हैं मैंनू " कभी मैं हां कहता कभी भाई। क्योकि यही वो सही वक़्त होता उनके पैसे देने का। … मुझे और मेरे छोटे भाई को वो 25 पैसे देकर जाते और बड़े भाई को 50 पैसे, मेरे मन मे बड़ा मलाल रहता कि मुझे 50 पैसे क्यों नहीं मिलते, मैं अक्सर भाई को कहता " तू बड़ा हैं ना  इसलिए फायदा उठाता है मैं बड़ा होता तो ऐसा नहीं होने देता " भाई मुस्करा देता। दिन भर सोचता रहता कि आज मैं इससे क्या खा सकता हूँ।  और तरह -तरह के सपने मेरे दिमाग में चलते कभी इमली वाला भाई तो कभी चूर्ण वाले भाई की याद आ जाती, उन दिनों फूलवडिया मिला करती थी जिसे मैं अपने हाथ की पांचो उँगलियों मैं डाल कर अपने दोस्तों पर रोब जमाता और उन्हें कहता "देख ओए मेरे कोल की ऍ " फिर वो लालच से मेरे तरफ देखते और मैं बड़ा खुश होता, आखिर कुछ समय के लिए मैं राजा बन जाता। ।  ...  आज भी मेरे घर में वो फूलवडिया है जिसे तलने के लिए मैं अपनी पत्नी से स्पेशल फ़रमाईश करता हूँ तो बचपन की तरह अपने आप को कुछ समय का राजा बनने जैसा आनंद जरूर ले लेता हूँ और अपने आप पर हंस लेता हूँ। …  खैर वो वक़्त ही कुछ था।


हमारा परिवार पंजाबी कम्युनिटी से था इसलिए हमरी भाषा में पंजाबी के साथ हिंदी का प्रयोग हुआ करता था।बचपन में जैसे मैंने सुना था उसके अनुसार संन 1947 में जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बटवारा हुआ था उस वक़्त मेरे दादाजी अपने परिवार सहित पाकिस्तान से सुभाष नगर दिल्ली आकर बसे थे , उस वक़्त यहाँ पर शरणार्थियों को यहाँ प्लाट दिए गए और प्लाट के आगे दुकान खोलकर व्यापार करने की इजाजत भारत सरकार द्वारा दी गयी।  दिल्ली के ऐसे कई इलाके हैं जहा पर इस  तरह की व्यवस्था है जैसे पुरानी सब्जी मंडी घंटाघर का इलाका या शक्ति नगर के आस-पास का  इलाका जिसे शरणार्थियों द्वारा बसाया गया।  अपनी  जिसे हम  सन 1984  मे हम आशा पार्क में आकर  बसे थे।  हम भाई बहनो के नाम किसने रखा यह जानकारी तो नहीं, पर नाम बड़े ही सिंसीलेवार थे।  बड़े भाई जय मै अजय और विजय छोटा भाई और एकमात्र बहन रानी । यहाँ पर यह साथ में कहना चाहूंगा कि नाम मैंने बदल दिए हैं क्योकि आने वाले समय में मेरे अपने बारे में कुछ ऐसे राज होंगे जो किसी ना किसी तरह उनकी जिंदगी को भी प्रभावित कर सकते हैं। 

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