मेरी कहानी मेरी जुबानी पार्ट -3
मेरी कहानी मेरी जुबानी पार्ट -3
वैसे मेरी माँ का स्व्भाव शुरू से ही काफी सख्त था और उनका क्रोध बहुत तेजी से सातवे आसमान पर पहुँच जाता था किसी भी बात को समझे बिना अपनी समझ के अनुसार एक सोच उनके दिमाग में होती और उसी सोच को, सोच -सोच कर अपने आप को क्रोध की अग्नि में जलती। जबकि मेरे डैड का स्व्भाव बिलकुल उसके उलट था। वो बहुत ही ठन्डे तरीके से सबसे बात करते, कोई अगर चुभने या उकसाने वाली बात कह भी जाता तो चुपचाप सुन लेते थे, पर आँखे सब कुछ कह देती है ना ! शायद यह सोच कर चुप रह जाये करते थे कि आज नहीं तो कल अकल आ जायेगी पर उकसाने वाले व्यक्ति को तो अपने ज्ञान पर गर्व होता है इसलिए कैसे उम्मीद कर सकते है ? यह तो मेरे डैड का नजरिया था !
मुझे याद है उन दिनों की मेरी उम्र लगभग पांच साल थी और सफारी सूट बच्चों का पहनाने का माँ बाप को शौक था ! दूकान के पीछे घर था बीच में एक दरवाजा था जो कि घर का कमरा और दूकान को अंदर से जोड़ता था और जैसे की मेरा स्व्भाव था कमरे से दुकान आते - जाते रस्ते मे जो कुछ दिखा चुपचाप बोरी से कुछ हाथ की मुठ्ठी में भरा और कुछ कमीज और पैंट कि जेब में भरा और चल दिए दोस्तो पैर रोब झाड़ने अब चाहे वह काजू बादाम हो किशमिश हो या कुछ और ! एक दिन मै जब कमर से दूकान की और जा रहा था और सफारी सूट पहना था अचानक मेरी नजर गई एक मोटी बोरी पर कि ठसाठस भरी थी सफ़ेद भुरभरे नमक से देखने में बहुत बढ़िया चमकीला लग रहा था , जैसे कि आदत थी मेरी चलते - चलते इधर उधर देखने कि शायद आज कुछ बढ़िया खाने को मील जाये ! जब नमक को देखा कि यह तो देखने मे बढ़िया लग रहा है तो मेरा हाथ अपने आप छूने को ललायित हुआ और एक बार चख लेने का सोचा ! जब चखा तो यह क्या ये तो मेरी होठो और जीभ पर बड़ा स्वादिष्ट लगा जीभ और दांतो को कष्ट नहीं देना पड़ा अपने आप ही घुल गया , अब तो मै लग चूका था अपने उस सफारी सूट के ऊपर की चारो जेब और पैंट की दोनों जैबो मे ठसाठस भरने और अपने दोस्तों पर रोब झाड़ने !
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