मेरी कहानी मेरी जुबानी पार्ट - 5
मेरी कहानी मेरी जुबानी पार्ट - 5
बात है 1990 की मैंने हाई स्कूल पास किया और जैसा कि आप जानते है युवावस्था का अपना ही एक जोश होता है, कुछ कर गुजरने की तमन्ना होती है, और मन मष्तिक में एक नई उमंग तरंग होती है, एक नई ताजगी और आजादी का एहसास भी होता है। याद कीजिये उस समय और अहसास को। सबका एक जैसा हाल होता है। सो मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल था . लेकिन जिंदगी मेरा हाथ पकड़ कर किस और ले जाने जा रही है उसकी रुपरेखा तो वो ही जानती थी, अब इस बात का एहसास तो किसी को नहीं होता ना और अगर पता होता तो हर कोई अपनी जिंदगी अपने अनुसार आसान नहीं बना लेता। अगले कुछ महीनों में मेरे साथ क्या होना था यह तो केवल ईश्वर ही जानता था। लेकिन आगे बढ़ने से पहले परिवार का परिचय बाकी है।
जैसा कि मैंने पहले बताया हम तीन भाई और बहन और मॉम डैड को मिलाकर 6 जनों का परिवार था जिसमें बहन चौथे नंबर यानी की सबसे छोटी बहन थी। हम तीन भाइयों के बाद बहन का जन्म हुआ था इसलिए घर की लाडली थी । सच कहूं तो जितना प्यार दुलार मेरी बहन को मां-बाप और भाइयो से मिला उसकी ख़ुशी जरूर है पर अफ़सोस यह कि सबको एक जैसा प्यार - दुलार क्यों नहीं ? माँ - बाप के लिए तो सभी संतान एक जैसी होती है। बड़े भाई को प्यार नाना-नानी दादा-दादी से इसलिए मिला क्योंकि वह पहली संतान थी मैं उसके बाद पैदा हुआ डेढ़ साल बाद , लेकिन तब तक दो बच्चो का बोझ एक साथ संभालना आसान नहीं था इसलिए शायद वो प्यार दुलार ना मिल पाया और फिर तीसरी संतान मेरा छोटा भाई तीन साल बाद 1975 में हुआ । छोटे भाई को प्यार इसलिए मिला क्योंकि वह छोटा था और हम दोनों बड़े हो चुके थे। फिर उसके बाद मेरी बहन और जब बहन का नंबर आया तो बहन सबकी लाडली बन गई । इस बात का अफसोस मुझे हमेशा रहा और फिर भी मैं किसी भी कुछ कह नहीं पाया। अगर कहीं भी देता तो इसकी कोई मायने नहीं थे क्योंकि 8 साल का कोई लड़का अगर यह बात अपने परिवार में कहे तो उसकी बात को सुनेगा कौन । एक - दो बार तो अपनी मॉम से कहना पड़ा कि "मम्मी आप सबका जन्मदिन मनाते हो, सब रिश्तेदारों को बुलाकर अच्छा खाना खिलाते हो लेकिन मेरे लिए क्यों नहीं ? "जहां मेरा जन्म 1972 में हुआ मेरी बहन का जन्म 1980 में हुआ यानी मुझ से 8 साल छोटी । 1975 में मेरे छोटे भाई के जन्म हुआ । मुझ में और मेरे बड़े भाई में डेढ़ साल का अंतर था। मेरे डैड DCM क्लॉथ मिल में काम करते थे और गुजारे लायक कमा लेते थे। अब घर घर में कमाई कम हो तो कंजूसी तो आ ही जाती है शो मेरी मां भी कंजूसी करती थी कभी कोई गली में कोई चाट वाला अगर आवाज लगाता हुआ आ जाता और मैं अपनी मां से खाने की फरमाइश करता तुम मेरी मां फौरन मना कर देती। कभी छोटी मोटी गलती हो जाने पर डंडे से मैंने और मेरे भाई ने बहुत बार पिटाई खाई । पता नहीं यह चार भाई-बहनों को संभालने का संघर्ष था या रुपए पैसों की कमी की चिड़चाहट । पर जो भी था हम सभी भाईओ ने खूब मार खाई । हालिका कहना तो नहीं चाहिए लेकिन हम सब भाइयों में इस बात को लेकर कड़वाहट थी । कभी-कभी हम भाई आपस में बात करते थे अपनी छोटी बहन के बारे में उसे कभी मार नहीं पड़ी ।
मुझे याद है वह वक्त था 1981 का जब आशा पार्क में कुछ रुपए पैसों की जमा पूंजी से मेरे मॉम डैड ने प्लॉट लिया । उसे बनाने के लिए मेरे नाना जी ने अपनी तरफ से आर्थिक मदद की । आसपास विराना था केवल2 - 4 मकान छोड़कर कुछ नहीं आसपास दिखता था । धीरे-धीरे बसावट हो रही थी गलियां कच्ची थी। पानी सुबह-शाम आता था जिसे सभीको अपने घर से एक साथ 3 -4 खाली बाल्टी लेकर मोहल्ले के चौराहा पर जाकर लाइन लग्न पड़ता और नंबर आने पर भरकर लेकर आते थे । मेरी और मेरे बड़े भाई की ड्यूटी होती थी सुबह ओर शाम को पानी की व्यवस्था करना । मेरा दाखिला एमसीडी स्कूल में करवा दिया गया जो कि मेरे घर से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर था । धीरे-धीरे बसावट हो गई कुछ नई दुकानें खुल गई तो कुछ घर बन गए। सड़क के एक और हमारा मकान था तो सड़क के दूसरी तरफ मेरे ताया जी का मकान था जो कि हमारे आने से बहुत पहले ही रहा करते थे । अपने मॉम डैड की बातचीत मैंने अक्सर सुना था है कि ताया जी को अपना जयादाद का हिस्सा दे दिया गया था जिसे उन्होंने प्लॉट लेकर अपना मकान बनाया और वही रहते थे । यदा-कदा मेरी मां मेरे डैड से कभी-कभी इस बात को लेकर उलाहना देती थी कि तुम क्यों नहीं मांगते अपना हिस्सा मेरे दादाजी से । पर मेरे डैड की जैसी आदत थी और वह उस बात को तूल नहीं देते और शांत कराने की कोशिश करते। वो कहते समय आने पर अपने आप ही उनके पिताजी उन्हें उनका हिस्सा दे देंगे लेकिन वह कभी मांगेंगे नहीं । हर रविवार को ऑफिस की छुट्टी होने पर मेरे डैड अपने पिताजी यानी मेरे दादा जी से मिलने सुभाष नगर जाया करते थे । जाते हुए रास्ते में वह अपने साथ कभी चीकू तो कभी पपीता लेते हुए मेरे दादाजी के पास जाते थे, उन्हें मालूम था कि मेरे दादाजी के दांत कमजोर थे और वह ठीक से खाना नहीं खा पाते थे इसलिए विशेषकर वह इन बातों का ध्यान रखते थे कि कोई भी फल सख्त ना हो जिससे उनके पिताजी को कोई परेशानी हो , यह मेरा अनुभव तब रहा जब मैं कभी-कभी उनके साथ अपने दादा जी से मिलने के लिए जाया करता था। मुझे याद है हमारे पहुंचने पर मैं और डैड जब पैर छूकर प्रणाम करते तो आशीर्वाद देते हुए वह कहते "जिविंदा रह पुतर" (जीता रह बेटा - लम्बी उम्र का आशीर्वाद ) और कुछ देर बाद मेरे पिताजी जब मेरे दादा जी के पैर दबाते हुए सेवा करते तो अक्सर दादाजी कहा करते " ओ रैन दे मेषी तेरे ते पहले बौत भोझ है, रैन देया कर" ( रहने दो वैसे तुम पर पहले ही बहुत बोझ है ग्रहस्ती का ) पर मेरे डैड कहां सुनते थे वह अनसुना करके प्यार उनके दबाते चले जाते हैं और अपना कर्म करते ।
मेरे दादा जी के परिवार में चार बेटे और दो बेटियां थी । मेरे पिताजी तीसरे नंबर पर थे, दूसरे नंबर पर उनकी एक बड़ी बहन और चौथे नंबर और पांचवें नंबर पर दो भाई और उसके बाद सबसे छोटी बहन । यानी मेरी दो बुआ और दो चाचा थे । ताया जी की किरयाने की दुकान हमारे आशा पार्क के मोहल्ले में बसने से पहले ही शुरू हो चुकी थी । उनकी दो बेटियां और एक बेटा था। उनके बेटे जिसे मैं प्यार से बिट्टू बाऊ कहकर बुलाता था क्योंकि देखने में थोड़ा लंबा था पर हंसमुख था कद उसका लगभग 6 फुट से कुछ काम ही होगा। मैं ओर मेरा भाई और कुछ गली के लड़के सड़क पर घर में कपड़े धोने वाली थापी को क्रिकेट बैट बनाकर क्रिकेट खेला करते थे । उस वक्त कपिल देव के वर्ल्ड कप जीतने का बुखार चारों तरफ था ।
1988 में मैंने दसवीं पास की मुझे याद है कि मेरी मॉम छत पर कपड़े सुखाते वक्त हमारे मकान के साथ लगे प्लॉट में गिर गई । गिरते हुए मुंडेर की दीवार की कुछ ईटे उनकी कंधे और कोहनी के बीच गिर गई जिसकी वजह से उसकी हड्डी टूट गई। घर के कामकाज का भोझ हम बच्चों पर आ गया हलिका मेरी नानी कुछ दिन आकर हमारे यहां रही और घर को संभालने की कोशिश की लेकिन आखिर वह भी कब तक कर पाती, एक तो बुढ़ापा और दूसरा अपने घर के काम को छोड़कर यहां पर चूल्हा चौका और कपड़े धोने के जिम्मेवारी कैसे पूरा कर पाती । मुझे याद है अपने इलाज के लिए कभी रिश्तेदार तो कभी किसी पड़ोसी को साथ लेकर हस्पताल में चक्कर काटने होते तो डॉक्टर के रवैया और अपने दर्द से कभी-कभी मेरी मॉम झुंझला उठती। कुछ दिनों बाद मामा ने कपड़े धोने की वाशिंग मशीन हमारे घर भिजवा दें और नानी चली गई अपने घर , तब घर के चूल्हे चौके और साफ-सफाई का भोझ हम दोनों बड़े भाइयों पर आ गया। मैं और मेरा भाई अपनी-अपनी ड्यूटी ले लेते एक दिन रोटी और घर की साफ-सफाई वह करता और एक दिन मैं ।
एक दिन अस्पताल से वापस आने के बाद सोफे पर बैठी हुई मेरी मां दर्द से कराह रही थी तब मैं सोच रहा था कि मैं ऐसा क्या करूं जिससे उनका दर्द कम हो पर मुझे कुछ सूझा ही नहीं क्योंकि उस वक्त में घर में जमीन पर पोंचा लगा रहा था, अचानक दरवाजे बजने पर जब खोला तो मॉम धड़ाम से सोफे पर गिरी ओर दर्द से अपनी बाजू को दूसरे हाथ से दबाने लगी जिसकी हड्डी टूटी थी । उस वक्त उनके आंसू बह रहे थे उसी वक्त मेरी छोटी बहन आई और मॉम के आंसू पूछे और पानी का गिलास मॉम की तरह बढ़ाया इस बात से मेरी मॉम ने अपने दर्द पर काबू पाते हुए कहा " तू ते मेरी रानी बिटिया है" ओर मेरी ओर गुस्से से आंखे बड़ी कर के कहा " तन्नू अक्ल नई है तू पानी नई दे सकदा सी" मै क्या कहता अपने हाथ मे पोंचा पकड़े । क्या कहता १८ साल वो लड़का, क्या यह कहता कि मैं राजा बेटा क्यों नहीं । क्या सिर्फ एक गिलास पानी को देने से वो रानी बिटिया हो गई और मैं जो अंगीठी पर तवा रखकर रोटी बनाता पूरे परिवार के लिए, झाडू पोंचा करता अपनी मॉम डैड ओर परिवार के लिए, क्या उसकी कोई कीमत नहीं थी । मेरी 8 साल की छोटी बहन ने अगर पानी पीने के लिए दिया तो वह रानी और मैं क्या ? यह सुन कर ओर सोच आज कभी कभी लगता है कही मै सौतेला बेटा तो नही ?
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